यायावर की डायरी के पन्ने काफी वक़्त से खाली पड़े थे...कभी वक़्त नहीं था तो कभी हम नहीं थे...ग्वालियर से लौटे करीब एक हफ्ता होने को आया..और अचानक आज डिजीकैम देखा तो ये तस्वीर दिखी...जो वहाँ रहते हुए अपनी खिड़की के बाहर चहचहाती चिड़ियों की आवाज़ सुन कर खींची थी...
बड़े वक़्त के बाद धूप देखी थी...बड़े वक़्त के बाद सांझ के ढलते सूरज को देखा था और उसे देख कलाई पर बंधी घडी पर वक़्त देखने का ख्याल नहीं था...मन में ऐसा कुछ भी नहीं था जो कहने का मन था...बस कुछ देर वहीँ खड़े रह कर चिड़ियों को चहचहाते देखता रहा...आसमान रंग बदलता रहा और मैं एक अनजान शहर में हो कर भी इन चिर-परिचित नजारों में वो टटोलता रहा जो ना जाने कहाँ पीछे छूट गया है...आसमान की ऊंचाइयों को नापते सपनों के बीच अपरिचित सी परिचित ज़मीन पर थमें कदमों का ये नॉन-कमर्शियल ब्रेक भी सुकून दे जाता है कभी कभी...वरना तो हर कोई चाहता है एक मुट्ठी आसमान...
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